Friday 10 June 2016

कविता ७३४. इन्सान का मकान

                                             इन्सान का मकान
छोटेसे मकान मे हमारी दुनिया बसती है या महलों के किसी कमरे मे हमारी श्याम गुजरती है इस से कोई फर्क नही पडता है दुनिया एकसी होती है
छोटीसी झोपडी कि तरह ही महलों मे भी अच्छाई बुराई दोनों रहती है जीवन कि कहानी हर पल उस बदलाव से बदलती रहती है
जीवन मे मकानों कि किंमत बदलती रहती है पर उनके बजह से दुनिया रंग बदलती रहती है एहसास बदल कर चलती है
पर सच्चाई तो यह है मकान कि कोई मायने नही रखता है मायने तो हर बार उसके अंदर का इन्सान रखता है जो सच्ची पेहचान होता है
जीवन ही तो हमारी पेहचान होता है जिसे समझ लेना जीवन का एहसास होता है जो दिल को हर बार अलग कोशिश देकर आगे चलता है
मकान को समझ लेना ही जीवन कि जरुरत नही होती है मकान से भी ज्यादा जरुरी इन्सान कि पेहचान होती है
पर अक्सर इन्सान दौलत से चीजे जोड देते है कभी अमीरी से तो कभी गरीबी से नफरत कर लेता है जो जीवन पर असर कर लेता है
जीवन कि दास्तान अमीरी और गरीबी से नही बनती है पर लोगों को उसे जोड देने कि आदत हर बार हो जाती है
क्योंकि दौलत से कोई बात तय नही होती है जो हमे बदलकर आगे बढती है जो जीवन कि कहानी अलग ढंग से कहती है
पर दौलत से जीवन का सिर्फ अंदाज तय होता है पर एहसास तो जीवन को बदल देता है जो मन कि ताकद से ही अक्सर बनता रहता है 

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