Sunday 22 May 2016

कविता ६९७. कोई सुनहरी लकिर

                                                     कोई सुनहरी लकिर
किसी किनारे पर किसी आवाज को सुनकर जीवन कहानी हर पल समझ लेते है उसे आवाज कि सरगम कहकर हम जीवन कि राहे बदलते रहते है
जिस संगीत को समझ लिया है हर मोड पर हमने हम हर राह पर उसको गाते रहते है जिसे हर बार जीवन कि सौगाद समझकर हम आगे चलते है
किसी गीत कि सुनहरी लकिर को कई बार हम समझ लेना चाहते है जिसे जीवन के हर पल मे हम जी कर आगे बढना चाहते है पर वही रंग हमे कहा एहसास दे पाते है
जिन्हे गीत कि सरगम के रुप मे हम चुपके से समझ लेना चाहते है परख लेने कि ताकद हर पल मन के अंदर हम रखते जाते है गीत को समझ लेना चाहते है
गीतों के किनारे हर पल तो जिन्दा रहते है जिसे अपने साथ समझकर हम जीवन फिर से मजबूती से समझ लेना चाहते है
पर कभी कभी किसी सूर मे हम कुछ अलग ही जीवन का मतलब हम हर राह पर अक्सर कहना चाहते है जिसे आगे ले जाना चाहते है
किसी सुनहरी किनार को हम समझकर आगे बढना चाहते है जिन्हे हर बार समझकर जीवन मे आगे चलना चाहते है
गीत को समझकर जीवन कि शुरुआत हम हर पल चाहते है जीवन को परखकर ही तो हम आगे बढना चाहते है
सुनहरी लकिरों को समझकर आगे बढ जाना चाहते है हम जीवन को समझकर आगे हर पल बढना चाहते है
हम जीवन कि सुनहरी लकीरों को समझ लेना चाहते है हम उन्हे हर पल हर मोड पर समझकर जीवन कि धारा को बदल देना चाहते है

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