Tuesday 10 May 2016

कविता ६७३. बंद कमरों मे जीवन

                                            बंद कमरों मे जीवन
हर बार जीवन को चाहते तो हम भी है पर जानते है बंद कमरों के अंदर जीवन कभी गुजरता नही है बिना धूप का जीवन कभी जीवन होता नही है
हर पल हर सोच के अंदर अलग आवाज सुनाई देती है जो कहती है हम से बिना साँसों के जीवन कभी बनता ही नही है जो आजादी को खो दे वह जीवन होता नही है
जीवन मे हमने देखा है बंद कमरों मे रहते है लोग कई पर डर के कमरे मे कुढने को हम जीवन कहते ही नही है हम उसे एक मजबूरी कहते है
जीवन को समझकर आगे चलने कि हर बार जरुरत होती है डर को परखकर आगे जाने को ही हम हर बार जीवन कहते रहते है
बदलाव तो जीवन का सच है जिसे बंद कमरों मे रहकर हम समझा नही करते है जीवन तो एक उडान है जिसे पंखों को बांध कर भरा नही करते है
जिसे हम मन से भरते है और उस आसमान कि ओर हम उडते है चाहे पहुँचे या ना पहुँचे पर उस ओर तो उडना चाहते ही है
जीवन कि बाजी हर बार आसान नही होती है पर हम उसे अपने दिल से जीना चाहते है क्योंकि हम दिल और दिमाग दोनों को एक ही जगह पाते है
कभी बंधन मे डर के खुदको बांधकर तो हम नही चाहते है प्यारी कि जंजिरे भी प्यारी है पर डर कि कच्ची डोर को भी कांट के हम जीना चाहते है
बंधनों से दूर कही पर जीवन को हम जीना चाहते है जिसे समझकर आगे बढना हर बार हम मुश्किलसा पाते रहते है
बंधन को तोडे बिना और बिना डर के हम कहाँ जीवन मे जीना पाते है क्योंकि कि डर के बंधन हमे बांधकर हमारी साँसे ले जाते है 

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