Sunday 17 April 2016

कविता ६२६. पत्थर के अंदर

                                                पत्थर के अंदर
पत्थर के अंदर कभी दिल नही होता है या फिर यह कह दे कि दिल आ जाये तो इन्सान पत्थर नही रहता है क्योंकि पत्थर के अंदर भी हम एहसास पा लेते है
हम इन्सान है जो सैतान मे भी भगवान ढूँढ लेते है और अस्सल भगवान को उस पत्थर के खातिर हम कितनी आसानी से भूला देते है
पत्थर को समझकर आगे जाने कि आदत हर बार होती है पर काश के जीवन मे असली भगवान को समझ लेने कि आदत हमे होती
पत्थर को पूज लेते तो भी भगवान मिल जाते है पर काश इन्सान को इन्सान समझ लेने कि आदत हमे होती तो दुनिया कितनी सुंदर होती
भगवान तो इस दुनिया कि कण कण मे होते है पर जाने क्यूँ गलत खयाल मे ही उन्हे ढूँढने कि हमे आदत सी हर बार होती है
दुनिया मे अच्छी चीजे समझकर हम आगे जाते है काश के दुनिया को अलग तरीके से समझकर खुशियाँ हर बार अहम हर मोड पर लगती है
तो सबकी खुशियाँ उनके पास लिखी होती काश जीवन मे जीत से ज्यादा दुनिया मे लोगों ने खुशियों को अहमियत दियी होती तो भगवानजी कि छाव सबके सर पर होती
पर क्या करे उस दुनिया मे सबका अलग एहसास मन के अंदर रहता है भगवान ने सबको मौका तो दिया है उसे समझ लेने कि ताकद सबमे नही होती
और हम भी ऐसे ग्यानी तो नही कि सबको समझाये हम से अपनी बात ही आसानी से समझ मे नही आ पाती है जो जीवन मे ताकद हर बार दे जाती है
भगवान को अलग तरह से समझकर आगे बढने कि आदत हमे तो खुदको दे दि है पर दूसरों को समझाये यह ताकद और इजाजत भगवान ने हमे नही बक्शी है
सिर्फ उनसे कहने कि इजाजत है जिन लोगों ने हम राह माँगी है जीवन मे आगे बढकर उनको राह देने कि जरुरत हमने हर बार समझ लियी है

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