Saturday 12 March 2016

कविता ५५४. दुनिया ने दियी चोट

                                                       दुनिया ने दियी चोट
कितना सुने हम इस दुनिया कि, अपनी बात तो बतानी ही थी कब तक चुप रहते हम आवाज कभी ना कभी तो मुँह से आनी ही थी
इस दुनिया कि रीत निराली है चोट तो हर बार मन को लग जाती ही है जिसे समझकर आगे बढ जाते है तो ही दुनिया मिल पाती है
कितने देर चुप रहते है हम जीवन मे कुछ पलों के बाद जीवन कि बाते हमे कहनी ही पडती है हमे हर पल हर कदम दुनिया कि हकीकत समझ लेनी पडती है
जीवन को समझ लेते है तो जीवन कि धारा को बदल कर आगे जाने कि जरुरत पडती है दुनिया हर बार अलग अलग रंग देती है
जीवन मे अलग तरह कि ताकद दे जाती है जो जीवन मे हमारे एक दर्दसा देती है जो हमारी चोट को मतलब देती है वह हमारी ताकद होती है
जो हमे एक कोशिश दे जाती है जो जीवन मे रोशनी दे जाती है जिसे समझ लेने कि जरुरत हर बार हमे होती है और उसकी चाहत मे तकलिफे सहनी पडती है
चोट ही तो किसी मोड पर जीवन कि सच्चाई होती है वही तो आखिर हमारी आवाज और आदत बनती है जीवन मे उसकी जरुरत होती है
जीवन कि कहानी साँसों मे एक पेहचान देती है जो हमारी जीवन कि कहानी मे दर्द कि शुरुआत हर बार बन कर आगे बढती है
चोट से ही दुनिया कि हकीकत बनती है आखिर चोट से ही तो दुनिया कि समझ बनती है जो हमारे जीवन कि कहानी बनती है
पर आखिर एक सवाल तो अक्सर हमारी सोच पूछती है हमारा तो भला भी हो जाये पर हमेशा चोट देनेवाले बरबादी ही पाते है
फिर भी जीवन कि धारा मे लोग जाने क्यूँ चोट तो देते ही रहते है दूसरों को जीवन मे हर बार जाने क्यूँ दर्द देना ही हर बार चाहते है

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