Monday 1 February 2016

कविता ४७५. जीवन में डर का असर

                                                              जीवन में डर का असर
कोई कदम जो हम लेते है उस कदम में ही जीवन के किसी डर को भुला कर पीछे लेते है जिस डर के अंदर दुनिया की सोच छुपी होती है उसे समझ लेते है
अगर कदमों को समझ ले तो जीवन के कई एहसास हर बार हमे छू लेते है डर तो वह सोच है जिससे हर बारी हम चोट खाते है पर फिर भी आजकल कभी कभी हम उस डर से लढ लेते है
जीवन को समझ लेना उसकी वह शुरुआत होती है जिसके सहारे हम दुनिया को समझकर आगे चल देते है जिसे हम परख लेते है पर डर की बजह से हम अक्सर चोट खा जाते है
डर तो वह सोच है जिसे हम परख लेना हर बार जरुरी समझते है क्योंकि कई बार डर की अलग अलग धारा को हम परख लेना हर मोड़ पर चाहते है
डर वह सोच है जिसे परख लेना हम जरुरी समझ लेते है पर डर को दूर रखना जरुरी है डर की ताकद को हम अक्सर हमारी सोच में आगे रख देते है
डर को समझ लेना हम जरुरी अक्सर मेहसूस करते है जिसकी बजह से जीवन की धारा के मोती हम गलत ढंग से जीवन में पिरोते है जो जीवन पर अलग असर कर जाते है
जीवन को समझ लेते है तो उसमे डर का हिस्सा कुछ कम हो हम हर पल उसकी चाहत जीवन में नहीं रख पाते है जीवन को समझ लेना जरुरी सोचते है
डर तो वह सोच है जो दुनिया को चोट देती है उस चोट को दुनिया में हम कहाँ समझ पाते है डर को हर बार हम अपने जीवन का हिस्सा बनाकर रखते है
वह डर छू लेता है उसको हम कहाँ समझ पाते है डर के आगे जीवन की कहानी को हम नहीं परख पाते है क्योंकि जीवन में चारों ओर सिर्फ डर को जब रखते है
तब तब हम डर के आगे जाने की कोशिश में जीवन को परख लेना हर बार चाहते है पर कर नहीं पाते है उस मोड़ पर रुक कर अगर हम डर को परखते है तो ही हम जीवन में आगे बढ़ते है 

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