Monday 28 December 2015

कविता ४०४. अपने मन का फ़साना

                                                        अपने मन का फसाना
क्या कहना फूलों से क्योंकि वह तो सब मन के राज जानते है क्या कहना समा से वह तो हर फसाने को कई बार समजा चुके है क्या समज लेना जीवन को जिसे हम जानते है
आसपास का समा जाने क्यूँ सब तो समज जाता है पर फिर भी हम जीवन कि वही  बात जमाने को कैसे बताये यह बात नही जानते है जीवन कि धारा तो बडी सीधी होती है पर हम उसे कहाँ पहचानते है
जीवन कि हर मोड पर जीना हर बार हम जानते है पर जमाने को जाने क्यूँ समज नही पाते है क्योंकि हमारी बात जमाना समज तो लेता है पर उसे कबूल कर लेना हम मानते है
जमाना तो नई शुरुआत हर बार करता है पर हम अलग शुरुआत चाहते है तो जमाना अक्सर अनसुनी बात करता है क्योंकि जमाने को हमारे लिए वक्त कहाँ होता है
जीवन कि हर माला मे हम अलग मोती ही पीरोते है वह मोती हर बार अलग उम्मीद हमे देते है जीवन को समज लेना आसान बना लेते है
जीवन की सोच जो रोशनी है जिसे जीवन में हम समज लेना चाहते है उसमे ही तो अक्सर अलग शुरुआत होती है फूल के अंदर अलग सोच होती है
वह ज़माने की तरह अपनी जिद्द में हमें नुकसान नहीं देते है वह हमें आगे ले जाने की उम्मीद देते है जीवन के अंदर अलग शुरुआत बस तभी होती है
जब जीवन के अंदर दुनिया को अक्सर हम से ज्यादा अपनी जिद्द की पड़ी होती है जो जीवन पर कुछ ना कुछ असर तो हर बार करती है दुःख हमारे मन को देते है
जीवन को समज लेना हमारी जरूरत होती है जीवन को आगे बढ़ाना जीवन की जरूरत होती है पर जब हम आगे जाते है कुदरत हर बार हमें समझती है
तो क्यों ना कभी कभी हम समजे अपने मन को और भुला दे ज़माने को क्योंकि जब हम ही नहीं समजे अपने मन को तो क्या बहाना देंगे अपने मन को क्यों हम अपनी खुशियाँ खो देते है 

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