Thursday 19 November 2015

कविता ३२७. पेड़ों पर लगे पत्ते

                                                                पेड़ों पर लगे पत्ते
हर पेड़ों पर पत्ते जो हिलते रहते है उनकी आवाज़ को हम हर दम समज लेते है पत्ते जब एक दुजे से टकरा जाते है उनकी आवाज़ को देखकर लगता है
काश इतने सीधे ही दुनिया के झगड़े हो जो जीवन कि एक धारा तक चलते हो जो दुनिया को एक मोड़ तक लेकर जाते हो पर किसी कि दुनिया को बर्बाद करने से पहले रुक जाते हो
पर गोर से देखो तो उस आवाज़ के अंदर अलग आहट होती है जो जीवन को दिखाती है हर सोच के अंदर अलग प्यास होती है पत्तों को ध्यान से देखो तो पता चलता है
कभी कभी कमजोर पत्ता जीवन में गिर पड़ता है उस जंग में कमजोरी से ही पता चलता है की पत्ता हर पल कमजोर होता है जो टूट कर जमीन पर गिरता है
पत्तों के अंदर अलग एहसास छुपा हुआ होता है जो जीवन में टकराने से भी बर्बादी की बजह बनता है पत्तों के अंदर ही तो वह सोच लिखी होती है
जो दिखती है की कमजोर को ही हर बार जीवन में नई सोच मिल जाती है शायद जब हम कमजोर बनते है तो ही हमारे झगडे इतने बड़े बनते है
क्योकि अक्सर दोनों ओर से अलग एहसास होता है पत्तों के बीच में अलग सोच का विश्वास होता है हर चीज के अंदर अलग तकरार होती है
पत्तों को देखे तो हर बार समज में आता है कमजोर इन्सान ही जंग में आगे बढ़ने देता है क्योंकि मजबूत पत्तों का टकराना हर बार कम ही नज़र आता है
पुराने पत्ते जीवन पर हर बार असर करते है धूल के अंदर भी कभी जिन्दा रह जाते है पर जो पत्ते टकराते रहते है उनकी उमर अक्सर कम होती है
तो शायद पत्तों से सीख लो की लड़ने की हर बार जरूरत नहीं होती है कभी कभी जंग को अनदेखा कर दो तो ही सही किस्मत होती है 

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