Tuesday 24 November 2015

कविता ३३६. अँधेरा और उजाला

                                        अँधेरा और उजाला
दीप जो अँधियारों मे उजाला दे जाते है वही जीवन मे अलगसा एहसास दे जाते है जीवन को परख लो उसमें उम्मीदें हम पाते है जब नन्हासा दीपक अँधेरा चीर जाता है
उसे उसकी जंग ना समजो क्योंकि चुपके से वह अँधियारे को समझाता है छोटेसे है हमे जगह दे दो आप के मदत से उपकार बड़ा लगता है और अँधियारा भी समज लेता है
आख़िर वह दीप ही तो उसे सुनहरा बनाकर जाता है अँधेरा भी अपने भले का सोचकर पीछे हट जाता है और दोनों के नसीब मे सुंदर रात का एक प्यारा मंजर आता है
दीपक जब प्यार से कुछ बताता है अँधेरा उसे बिना मगरुरी के जीवन मे सुन लेता है इसीलिए तो हमारे जीवन का अँधेरा रातों को भी हट जाता है
पर जो अँधेरा कर जाता है वही इन्सान जीवन मे कहाँ उजियाला कर पाता है वह सिर्फ़ अपनी सोच से आगे बढ़ता जाता है दूसरों से ज़्यादा अपनी ताकद पर भरोसा कर जाता है
अँधेरे से जीवन जब भर जाता है समजदारी से अँधेरा उस रात को बेहतर बनाता है रात से डरने कि जगह इन्सान मुस्कुराता है क्योंकि अँधेरा खुद से ज़्यादा दूसरों कि सोचता है
उस छोटेसे दीपक को भी अपने बराबर का समज लेता है अँधेरा ही अपनी जीत से ज़्यादा दूसरों कि मुस्कान को समज लेता है इसीलिए उस दीपक के कहे पर वह पीछे हटता है
बाद मे वह उजियाला उसके मन को कुछ इस कदर भाता है उसे लगने लगता है वह दिन से उसे बेहतर बनाता है छोटे छोटे से दीपों से लेकर बड़े दियों तक सबसे वह दोस्ती करता जाता है
रात को हर पल बेहतर बनाता है अपने ताकद कि अँधेरा ख़ुशियाँ बाँटता जाता है वह अपना डर भगाता है बेहतर कह लाता है तो अँधेरा जब अच्छाई से पेश आता है बेहतर बन जाता है
छोटेसे दीपक कि मदत से अँधेरा बेहतर बन जाता है तो कमज़ोर सही पर एक दीपक अँधेरे को उजाले से भी सुंदर बनाता है जो कमज़ोर कि दुआ पाता है वही जीवन का असली उजियाला कह लाता है

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