Sunday 15 November 2015

कविता ३१८. जोड़नेवाले

                                                                  जोड़नेवाले                
पुरानी किताबों के पन्ने भी कभी कभी नये लगते है जब किताब दूर जाती है उनकी यादों में हम तड़पते है कैसे लोग नहीं समज पाते किताबों की कदर यह सोच कर मन ही मन आह भरते है
पुरानी हो या नयी किताबों में हम अपनी दुनिया ढूँढ़ ही लेते है पर आजकल तो यह आलम है की जीवन की किताब पढ़ने से ही वक्त नहीं बचता है तो किताब कहा पढ़ पाते है
समज में नहीं आता है दोस्तों किताबों में जो गलत काम लोग किया करते है वह जीवन में क्यों करते है जिसे पढ़ के हँस पाते है उसे रोने का सामान क्यों बना दिया करते है
काश इन्सान बस सीधी राह चले पर लोग हर बार टेढ़ी राह पर ही मिलते है उनके साथ के लिए उस राह से चलने से अच्छा है की लोग को हम भुला दिया करते है
क्योंकि उनकी जिद्द के ही यह नतीजे है की आजकल हमारे पास वह फुरसत ही कहा जिसमे हम मन की बात किया करते है
लोगोंको तोड़ने का शौक हो गया है दोस्तों तो हमारा काम  कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है क्योंकि हम और आप तो दिल को जोडने का काम हर बार किया करते है
किताबों के हर पन्ने में लिखी बातों को हर बार हम मन में रख कर किताब को पढ़ने की उम्मीद में जिया करते है जब जोड़ने का काम इतना मुश्किल था तो कुछ और लोग भी रखता उप्परवाले क्योंकि जोड़नेवाले बड़े कम लगते है
या फिर ऐसा तो नहीं आप से जोड़ने का वादा कर के लोग बाद में मुकर जाया करते है आप  उन्हें सजा तो देगे हुजूर  लेकिन तब तक काम कैसे चलाये हम
क्योंकि हम जोड़ में लगे है लेकिन हमारी किताबें भी हमारा इन्तजार किया करती है हम जानते है एक बार कहे हम तो आप से सच्चे दिल की पूकार सुना करते है
तो उस बार कुछ ऐसे लोग भेजो जो सच की राह पर सचमुच में चलना चाहते है वरना बाकी लोग तो बस बहाने बनाया करते है और जरूरत के वक्त भाग खड़े होते है 

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