Saturday 3 October 2015

कविता २३२. गलती को भुलाना

                                             गलती को भुलाना
रिश्ते कभी आसान नहीं होते हम कभी उन्हें समज भी लेते है उन्हें परख कर जाने क्यूँ उन्हें अधूरा करते है जब हम खुद ही परख लेते है तो क्या हम ग़लत नहीं
आसान सी बात तो बस यह है कि जब तक हम परख लेना नहीं छोड़ पाते रिश्ते सही से नहीं बनते या फिर हम यह समज ले कि हम भी हर बार सही नहीं होते
जीवन के दो राहों पर हर बार तो एक राह चुन लेते है पर हर बार वह राह हम सही  नहीं लेते तो क्यूँ गिनते है लोग अक्सर ग़लतियाँ उन्हें भुला ही क्यूँ नहीं देते
याद रखी गलती अक्सर काँटों सी चुभती रहती है तो फिर उसे मन मे सजाकर लोग क्यूँ है रखते है उड़ा दे अगर उसे तिनके कि तरह उड़ा देते जो मन से बोझ हटा देते
अगर याद रखने से चोट न खाते तो हम याद रखना भी समज लेते पर याद होते हुए भी हम सब कुछ इस तरह से किसम से जुडे है न चाहते हुए भी दोहरा देते है
तो फिर उसे याद रख के हमने जीवन मे कौनसी बात समज ली और जीवन मे हर बार नहीं है दोहराई चाहे कितनी भी ग़लतियों से सीखे पर दूसरों की गलती को याद रख के हमने जीवन मे कोई बात ना पाई
क्यूँ तकलीफ़ मे रखे खुद को अगर कोई चीज़ खटके तो ना कर के मन को तसल्ली हो पर हम करते है जाने किस डर से और फिर ग़लतियों को फिर से याद करते है
मन एक बहती धारा है उसे ग़लतियों को याद रख दर्द न दो क्योंकि ग़लतियों गिनवाने से आज तक कोई बदला नहीं तो क्यूँ न अपने आपको ग़लतियाँ गिनने कि तकलीफ़ से बचा ले हम
क्यूँ ऐसी तकलीफ़ ले जिस सोच से काटे ही मिले जो एक बारी मे ना समजे उसे उस कमी संग ही अपना ले हमारे चाँद मे दाग़ तो सूरज मे भी आग है तो क्यूँ न इन्सान कि कमी को अपना ले हम
क्योंकि अगर ग़लतियों को सिर्फ़ गिनते रहे तो कहा सुगून से जी पायेंगे हम धीमे धीमे से हर कदम ग़लतियों से ही सीख लेंगे तो क्यूँ न एक बार कह कर उस गलती को भुला दे हम

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