Thursday 22 October 2015

कविता २७०. गुस्सा

                                                                 गुस्सा
हर बात का कभी गुस्से से तो कभी प्यार से हम जवाब है देते हमने देखा है यह बात तो बस हमारे मन पर है पर फिर भी हर बार  दुसरे किसी चीज पर हम इल्जाम है देते
जब कोई पूछता है हम क्यूँ नाराज है हम इतने मुश्किल में पड़ जाते है की कैसे हम कह दे कल के किस्से से आज भी मन में काटे है चुभते रहते
माना की कल का किस्सा बड़ा ही दुःख देनेवाला था पर कभी कभी हम सोचते है रहते जीवन में दुःखों को साथ रखने से जीवन में कुछ नहीं पाते
कल की हर बात को हर बार हम जीवन का किस्सा अपना हिस्सा बना के है रखते जीवन को हर बार हम समजते है रहते
कल की गलत बात को हर बार जाने की जगह हम जीवन में रख जाते है जिसे हम जीवन के गुस्से का हिस्सा हर बार समझते है
जिसे हर पल नहीं समज पाते उस सोच से ही हम जीवन को परखते है जीवन के हर सोच के अंदर एहसास तो हर बार होते है
जिन्हे हर सोच के भीतर समज लेते है गुस्से के साथ जीवन को कुछ अलग सोच से परख लेते है जिसे समज लेना जीवन में खुशियाँ है भरते
गुस्से के सोच को हर बार हम नये ढंग से परख लेते है जिसे जीवन में समज लेना है उस सोच को कई बार हम मेहनत से समझते है
काश उसे परखने की जगह वह मेहनत हम दूसरी चीज में करते तभी तो जीवन को हर सोच के साथ हम आगे बढ़ते है जाते
गुस्से से नहीं हम तो खुशियों से ही मोहोबत करते है पर फिर भी अनजाने में हम गुस्से को साथ में रखते है पर आजकल उसे भुला देने की कोशिश हम हर पल करते है 

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