Monday 26 October 2015

कविता २७८. किस्मत कि बात

                                       किस्मत कि बात
रोज़ जागने से पहले कभी हम किस्मत को कहा करते थे कि कम से कम उस बारी तू जाग लेना उस बारी तू हमारे संग दुनिया मे भाग लेना पर किस्मत कहा सुनती थी
तो आजकल हम उसे सुनाया भी नहीं करते जीवन कि हर धारा को अपनी मर्ज़ी से जीते किस्मत से कुछ माँगने कि जगह उस से जो भी पाते है उसमें ही ख़ुश रह लेते है
जीवन कि जो धारा हर बारी रंग नया देती है उसको हम संभाल लेते है जीवन कि हर सोच को चुपचाप अपने साथ रखते है या उसके ख़िलाफ़ मन से हर बार लढते है
किस्मत तो हर बार अपनी मर्ज़ी से चलती है हमारे कहने से वह बिलकुल न बदल पाती है जीवन के अंदर नई सोच तो आती है जो जीवन को अलग सिरे से समज जाती है
पर पुरानी हो या नई बात जिन्दगी तो किस्मत से हर बार जुडी रहती है जो जीवन को हर बार नई साँस दे जाती है वह जीवन को ख़ुशियों का एहसास गमों के साथ दे जाती है
किस्मत को अगर समज लेते है तो दुनिया उसमें अलग एहसास दे जाती है पर हमारे कहने से सिर्फ़ वह बदल नहीं पाती है जीवन के हर मोड़ पर वह उम्मीदें लाती है
जीवन को परख लेना वह आसान नहीं होता जीवन को किस्मत के हवाले अपने आप करने से दुनिया बदल सकती है क्योंकि अपना लेने के बाद जीवन कि दुनिया सवरती है
क्योंकि तभी तो जीवन कि दुनिया संभल जाती है जब जीवन को दुनिया अलग ही मतलब देती है तो किस्मत से ही तो हमारी साँसें चलती है तो फिर क्यूँ माँगे कुछ किस्मत से जब वह साँसें तो देती है
किस्मत के अंदर नई सोच तो अक्सर होती है जिसे समज लेने से जीवन कि शुरुआत अलग होती है किस्मत के अंदर नई साँसें हमे हर बार मिलती रहती है
जीवन के हर मोड़ पर किस्मत हर बार साथ देती है जिसे समज लेने कि चाहत जीवन को रोशनी देती है किस्मत तो हर बार जो कुछ भी देती है उसमें जीवन कि सच्चाई भरी होती है

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