Sunday 18 October 2015

कविता २६३ सोच का घेरा

                               सोच का घेरा
हर बारी अचरज कि बात है क्या जीत के बाद हार का एहसास है क्या जब जीत को परखे उस पल जीवन को समज लेने कि बात का एहसास होता है क्या
जीवन के हर मोड़ के अलग सोच का घेरा होता है हर बारी जीवन को समज लेना मुश्किलसा लगता है जीवन के हर सोच का अलग एक घेरा होता है
पर किस सोच मे हम फँसे यह हमारा सोचना होता है हम सही सोच को अगर समज लेते है तो उम्मीदों का आसानी से आना जाना होता है सोच के घेरे को समज लेते है
तो उस घेरे को आजमाना बड़ा मुश्किल हम समज लेते है जीवन के हर घेरे को समज लेना आसान नहीं होता है जिसे समज ले उन घेरों को परख लेना भी ज़रूरी होता है
क्योंकि सोच का घेरा कभी कभी जीवन मे मुसीबत भी बन जाता है उसे समज लेना जीवन मे मुश्किल ले आता है क्योंकि सोच के अंदर भी कभी कभी ग़लत ख़यालों का आना जाना होता है
सोच के घेरों मे अलग ख़याल तो हमेशा आता है जिसका जीवन पर अलग असर होता है जीवन के अलग अलग ख़यालों के नतीजों से जीवन बदलता जाता है
सोच के घेरों को समज लेना जीवन मे रोशनी लाता है क्योंकि सोच को समज लेते है तो वह ख़याल जीवन पर सही असर तो लाता है सोच के अंदर नया एहसास लाता है
पर कभी कभी सोच के घेरों के अंदर असर तो अलग होता है कभी कभी उस सोच का मतलब अलगसा होता है सोच तो जीवन को जिन्दा करना चाहती है उस सोच का मतलब मौत सा होता है
सोच के घेरों के अंदर जीवन का एहसास अलग होता है जो जीवन को हर कदम पे उम्मीदें देता है वह एहसास खोता हुआ दिखता है जीवन के भीतर घेरा उम्मीदों का होता है
जिसे समज लेना हर बार ज़रूरी होता है सोच के घेरे मे जीवन अलग रंग दिखाता है तो सही घेरे को समज लो तो वह जीवन को नया मतलब हर बार दे जाता है

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