Sunday 27 September 2015

कविता २२०. पर्वत कि बादी

                                        पर्वत कि बादी
पर्वत कि उस बादी से जिस से हम कई बार गुजरे उनके अंदर के पेड़ों को कई बार हम समजे पर हर मोड़ के अंदर पर्वत के कई नजारे दिखे जिन्हें हर बार हम फुरसत से समजते रहते है
दुनिया चाहे परखे या ना परखे जीवन को हम अलग मतलब से परखते रहते है जिसे हम समज लेते है तो दुनिया के रंग बदलते रहते है उनके अंदर हर मोड़ पर नये नये चेहरे है
दुनिया उन्हें देखना चाहे या ना चाहे पर हम तो उन्हें समज लेना चाहते है जीवन के हर मोड़ को परखना चाहते है दुनिया के उन पर्वतों को परख लेना चाहते है
हर मोड़ पर उस पर्वत के ऊपर कुछ अलग ज़रूर छुपा है जिसे हम हर पल दिल से समज लेना चाहते है जीवन कि हर कश्ती सीधे मोड़ पर नहीं चलती उसे हमे सीधे मोड़ पे ले जाना पड़ता है
पर्वत के ऊपर हर मोड़ पर जीवन को समज लेना अक्सर ज़रूरी होता है पर लोग उसे कभी समज लेंगे ऐसा जीवन मे कहाँ लगता है पर्वतों के ऊपर अलग अलग नजारा रहता है
पर्वत के अंदर अलग तरीक़े का अफ़साना दिखाता है पर्वत के अंदर अलग किसम कि दुनिया है जो जमाना देखना नहीं चाहता है हर बार हम उसे देखना चाहते है
पर्वत के ऊपर नये नजारों का एहसास ज़रूर होता है उन्हें परखे तो जीवन को समज लेना है बड़ा मुश्किल सा होता है पर फिर भी यह दिल उन्हें परखना चाहता है
शायद यह दिल खुद ही मुश्किल रस्ता चुनना चाहता है जीवन कि हर मोड़ को समज लेना चाहता है पर्वत पर ही हर बार घूमता रहना चाहता है जीवन को परखना चाहता है
पर्वत के ऊपर अलग अलग नजारों को परख लेना चाहता है वह हर बार जीवन को समज लेना चाहता है हर बारी जब हम आगे बढ़ जाये तो वह हर मोड़ मे जीना चाहता है
पर दुनिया हमे समज ही नहीं सकती उस दुनिया से दूर ही रहना चाहता है क्योंकि दुनिया उन पर्वतों को समजना नहीं चाहती और दिल उन पर्वतों मे जिन्दगी गुज़ार लेना चाहता है

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