Wednesday 5 August 2015

कविता ११६. इन्सान को ना समज पाये

                                              इन्सान को ना समज पाये
कुदरत को ना समजे हम पर शायद हम इन्सान को भी ना समज पाये यह हर पल लगता है क्योंकी जीवन मे दिखते है कुछ अलग साये
इन्सानों मे हमने तरह तरह के रुप है पाये जिन्हे हम किसी तरीके से भी जीवन मे नही समज पाये हर बार हम जब आगे बढ जाये
इन्सानों के अलग किसम के रुप हमेशा जीवन पर असर कर जाये जो सोचा था उससे भी अलग सोचनेवाले इन्सान हर बार हम जीवन मे पाये
जब जब जीवन आगे बढ जाये उसे हम कहा समज पाये जीवन के हर मोड पर हमे इन्सान हर बार कुछ अलग ही दिखने लगते है
बूरा नही हर बार पर हम कुछ ना कुछ तरिको से समजते है कभी अच्छे कभी बुरे तरीके के इन्सान मिलते है जो जीवन मे हर बार कुछ अलग दिखाते है
जीवन का अलग मतलब समजाते है इन्सान तो बार बार जीवन अलग तरीके से समजाते है हर तरह के नये नये जीवन के सपने हमे दिखाते है
कभी कभी साथी भी धोका दे जाते है पर नये लोग ही जन्म जन्म के साथी जैसी साथ निभाते है जीवन पथ पर हर बार हम अलग ही सोच रखते है
उसे जीवन के बदलाव के संग बदलते है हम जब जब जीवन को समजे वह उम्मीदों से अच्छा लगता है पर उम्मीदों का सपना कभी कभी मन को ना सच्चा लगता है
पर कुदरत के संग जैसे हम समजोता करते है उसी तरह हम जीवन पथ पर चलते है कभी कभी उठते है कभी गिरते रहते है

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