Friday 28 August 2015

कविता १६१. धीरे धीरे से समजना

                                                              धीरे धीरे से समजना
जब जब हम जीवन में आगे बढ़ना चाहे धीरे धीरे हम जीवन को समजना है हालाकि मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं है जीवन को समजना इतना मुश्किल भी नहीं है
अगर धीरे धीरे समजो तो सारी  बाते समज आती है क्युकी धीरे से चलने से कई बार मुसीबते हल हो जाती है जब जब हम धीरे चलते है
कई बाते जो नज़रों से छूटी हो वह भी नज़र आती है जीवन के अंदर ही तो सारी दुनिया सिमटी हुई है उसे ध्यान से देखो तो हमें सबकुछ समज आता है
अक्सर जल्दबाजी में ही इन्सान गलती कर जाता है जब जब वह आगे बढ़ता है जीवन का मतलब नया नज़र आता है जब जीवन को समजे तो असरबहुत अलग होता है
जीवन के हर धागे में कुछ ना कुछ तो मतलब छुपा होता है फुरसत में अगर समजे हम उनको तो दुनिया का अलग मतलब नजर आता है
हर धागे में जीवन मे कोई उम्मीद तो पता है अगर तुम समजो जीवन को तो अलग ही असर नज़र आता है क्युकी हर धागे में तो अलग मतलब नज़र आता है
गौर से देखो उस धागे को तो उसमे दुनिया का अलग रंग मिल जाता है जो हमें अक्सर भाता है जीवन में हर मोड़ पे कोई ना कोई तो असर होता है
जीवन को परखो तो उसमे सचमुच कोई तो अहसास छुपा होता है जब जीवन जीते हो तो उसमे हमें हर पल कुछ ढूँढ़ना होता है
अगर उस तलाश को समजो तो ही जीवन का असर नज़र आता है क्युकी हर बारी जीवन में अलग अहसास होता है हर बारी गुथी होती है जिसे सुलज़ाना जरुरी होता है
जीवन मे हर तरह का रंग छुपा होता है अगर जीवन को समजो तो उसमे दुनिया की हर ख़ुशी का विश्वास भरा होता है धीरे धीरे से समजो जो जीवन खुशियाँ देता है 

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