Saturday 15 August 2015

कविता १३६. दूसरों को समजना

                                       दूसरों को समजना
जो चीज़ चाहते है उसे हर बार समज भी ले तो कई बार हमे लगता है कि हम खुद को ही नहीं जानते है जब खुद को नहीं समजे हम तो किसी ओर चीज़ को क्या जानते है
हम अपने दिल को नहीं समजते तो दूसरी चीज़ों को क्या खाक जानते है पर हर बार जब जब हम मन को नहीं समजते जीवन को क्या समजायेंगे जो बात मन मे आयी
कभी वक्त मिला और बैठ भी गये तो मन कि आवाज़ नहीं सुन पायी किसी कोने मे बैठा है जहाँ जीवन कि आवाज़ भी नहीं सुनाई पड़ पायी मन के अंदर छुपी हुई जो आहट आयी
जब मन के बात को ही हम फुरसत नहीँ दे पाते है जाने क्यू जीवन मे दूसरों के मन के बारें मे बताते है जब हम जीवन को समजे तो पहले खुदको समजना ज़रूरी है
पर हमने अक्सर देखा है उन्हें कहते हुए के वह गैरों को आसनी से समज लेते है जो दूसरों को हर पल समजना चाहे तो खुद को ही क्यू ना कभी कभी समजले
पर लोगों को दूसरों को समजने से ज़्यादा दावा करने की चाहत नज़र आती है क्योंकि जब समजना चाहे तो जीवन मे नये मोड़ आते है उन्हें वह अपने लिए ही समज लेते
पर वह लोग तो अक्सर दिखावा चाहते है वरना खुद की जगह जाने क्यू दूसरों को समजने का दावा करते समज भी ले तो ख़ुशी होती पर वह तो दूसरों को समजने मे वक्त कहा गवाते है
जब जब वह लोग कुछ भी कहते है उसे हम ही न समज पाते है वह अपने मन से ही सोचकर दूसरे कि ज़बान बताते वह नहीं समजते है मन को पर दावा करते जाते है
झुटे दावों को देखकर हम अजरज मे पड़ जाते है सारे दावे बस ऐसे है जिनमें वह लोग दुनिया को ग़लत इशारे दे जाते है वह नहीं समज पाते है अपनी सोच को नहीं समजते
पर अफ़सोस तो इस बात का है वह अपनी ग़लत सोच के चलते दूसरों कि सोच भी अपनी सोच के साथ पल पल धीरे धीरे बदलते जाते है नयी ग़लत सोच लाते है

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