Thursday 13 August 2015

कविता १३१. मर्जी

                                                                        मर्जी
जाने कहा से कोई हवा सी मन को छूती है जीवन के हर मोड़ पर दुनिया अलग सी दिखती है हर बारी में जीवन को समजे दुनिया अलग सी लगती है
जिसे हम छू ले वह हर चीज़ अलग सी लगती है आगे बढ़ते जायेंगे हम  हर बार दुनिया यही बस कहती है जिसे समजे हम वह जीवन है
पर जिसे दुनिया समजाये वह जीवन की दास्तान अलगसी लगती है जब जब हम आगे बढ़ते है दुनिया हर बार रंग बदलती है जिसे परखे उस दुनिया में वह नया रंग सा भरती है
बड़ा मजा है इस जीवन में जब अपनी मर्जी चलती है वरना जाने क्यों हर बार यह दुनिया हमें नडती है जैसे हम आगे बढ़ते है बस उम्मीदे ही जगती है
इस दुनिया के हर मोड़ पर नयी शुरुवात ही जीवन को जिन्दा करती है पर अपनी मर्जी से सब जीना चाहते है पर हर किसी को कभी न कभी तो औरकी भी सुननी पड़ती है
तब दिखती  है सचाई क्या है जिन्दगी इन्सान को कितना सुख और कितना दुःख देती है जब जब हम आगे बढ़ जाये दुनिया खुशियाँ देती है
जिसे हर पल हम समज रहे है वही दुनिया हमारी मुठीसे जब फिसलती है तभी इस जीवन के हर मोड़ पर सचाई सी हमेशा दिखती है
जब जब हम आगे बढ़ जाये दुनिया हमें सिखाती है हर बार अपनी मर्जी नहीं होती जो यह सीखा जीत उसीके नसीब में आती है
जो सिर्फ अपनी मर्जी से जिया है वह खाक कर सका कुछ हासिल है वह तो बस सन्नाटों में जिया है वह करता है कुछ नहीं हासिल है
जीवन को जो समजो तो दुनिया हमारे मर्जी से कम पर दुसरे के मर्जी से हर पल और हर बार आगे बढ़ती है और चलती है 

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