Saturday 25 July 2015

कविता ९३. जूठ की जीत

                                                                    जूठ की जीत
जूठ कितना भी जीत जाये पर आखिर में सच्चाई की जीत होती है क्युकी सच्चाई तो हसती है और रोने के ही लिए जूठ की उमर होती है
जूठ कितना भी आगे बढ़ जाये वह खुशियाँ नहीं पाता है क्युकी खुशियों में तो  मन की अच्छाई  जरुरी होती है जो जूठ कितना भी हस ले वह मुस्कुरा नहीं पाता है
क्युकी मुस्कान तो सच्चाई की देन होती है जब जब हम सोचे जूठ के जीत के बार में तो लगता है जैसे उस जीत से अच्छी तो हमारी हार होती है
क्युकी जो जीत कर भी खुश नहीं है वह क्या जीत होती है जूठ इन्सान को इन्सान नहीं रखता जूठ तो अपना मुक्कदर बदलता है
क्युकी जूठ से ही बरबादी इन्सान को है मिलती पर  जब तक  सच सामने न आये जूठ की दुनिया हमेशा आगे दिखती है
पर सच्च तो आता ही है उसमे जाने क्यों लोग को शक होता है पर सच का आना मुकदर का अहम फैसला होता है
पर जाने क्यों लोगों को उसमे भी सच्चाई नही दिखती इसीलिए तो हमेशा जूठ की उमर है बढ़ती तो जूठ की उम्मीद पर हम आगे बढ़ते है
तब जिन्दगी में अपनी किस्मत है बिगड़ती हर बार जब हम आगे बढे तो बस जूठ के दम पर तो दुनिया है बिघडती सच्चाई के दम पर ही किस्मत चमकती है
पर जब तक यह दिखता नहीं तब तक दुनिया नहीं समजती की जूठ की उमर छोटी होती है और जूठ के साथ कभी दुनिया नहीं सवरती है
तो जूठ को भी लोगों को मौका देने दो ताकी बाद में ना कह दे की जूठ के ही दम पर उनकी दुनिया तो संभलती क्युकी दुनिया कभी भी जूठ से नहीं आगे बढ़ती है 

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