Wednesday 8 July 2015

कविता ५९. उम्मीद को समजना

                                                            उम्मीद को समजना
काश हम आप बिन कहे ही कुछ समज पाते काश हम हर मोड़ पर उम्मीदों को जिन्दा रख पाते
पर ऐसा नहीं होता है अक्सर ज़माने में हर बार कई मोड़ आते रहते है फ़साने में काश हमने भी कोई
आसान मोड़ समजा होता
पर आसान मोड़ नहीं मिलता हर बार काश के हमने उन्ही मोड़ों में से सही मोड़ को समजा होता
काश हम जमाने को समज पाते की हर बार कोई मुश्किल नहीं होती है जीने में हर किसी ना किसी फ़साने से हमे जीना सीखना नहीं पड़ता
कभी कभी बड़ी आसानसी एक बात होती है बस उसका  दिल से मुँह तक आना नहीं होता और फिर जो अफसाना बनाता है जिसे मन से समज पाना नहीं होता
काश के हम समज लेते इस दिल को काश उसमे कई मसले भी शामिल हो पर उन मसलो को जिन्दगी में समज पाना नहीं होता
उन्हें इतना उलजाते है की किसी ओर से उनको सुलजाना नहीं होता उम्मीद को समजना बड़ा मुश्किल है होता
उसे समज पाना हमे आसान नहीं लगता क्युकी हर बार समजना बातों को आसान नहीं होता
क्युकी बातों में नये नये मोड़ तो अक्सर होते है उन्हें समज पाना आसान नहीं होता जिन्हे हम हर बार जीते है उन्हें भी कई बार समजना आसान  नहीं होता
जिन्दगी में कई सोच जो रखते है उस सोच को समजना जिन्दगी के लिए आसान नहीं होता
हर हर वक्त जब हम हर मोड़ में चलते है उस मोड़ पर चलना जिन्दगी में इतना आसान नहीं होता
पर फिर भी लगता है के अगर बात आसानी से मुँह से निकल जाये तो उसे समज पाना हमारे जिन्दगी के लिए आसान हुआ होता
पर फिर भी अगर जिन्दगी इम्तिहान चुनती है तो वह इम्तिहान देना जिन्दगी के लिए  मुश्किल नहीं बड़ा आसान होता 

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