Wednesday 8 July 2015

कविता ६०. चेहरों को समजना

                                                           चेहरों को समजना
हमने सोचा था हमने तो उस नज़र को पहचान लिया है पर फिर चेहरे को देखकर मन में क्यों तूफ़ान उठा है
हमें तो लगता था की हजारों में भी पेहचान लेंगे हम पर नज़रों की जगह हमने चेहरे पर ही ज्यादा गौर किया है
छुपने का मजा तो अलग है पर उसमे कभी कभी अनजान समजने का खतरा भी घिरा हुआ है
जब तूफानों में नयी नयी सोच का सिलसिला है क्युकी हर बार सोच में एक मतलबसा लिखा है
काश चेहरे की जगह सोच को ही पढ़ पाते हम इस लिए उस सोच से नयी दिशाओं का नया सिलसिला है
चेहरे की नयी सोच जो हम समज पाते उसे हर बार हमे नयी उम्मीद का तो कोई किस्सा मिल पाता
जब जब हम चेहरे पढ़ते है सोच को काश पढ़ पाते हमारी नज़र तो धोका नहीं देती है पर फिर भी उस नज़र को कभी कभी ढूढ़ ही नहीं पाते है
चेहरा ही कभी कभी अहम बनता है उसका हर फरक भी नहीं समज पाते है हम क्युकी अक्सर जिसे ढूढती है
हमारी नज़र उसे ही हर मोड़ पर हम देखने लगते है
चेहरे पर कई  रखते है हम जब चलते है काश चेहरे को समज पाते हम हर मोड़ और दम क्युकी उस चेहरे को नहीं समज हम पाते है
सोच में नये नये तरीके लाती है जिन्दगी उस सोच में कई कई बार जिन्दगी के नये नये सपने देखने हम लगे है
चेहरो को हर बार समज नहीं पाते है काश नजरों की तरह चेहरों को समजना आसान होता क्युकी जरूरत पड़ने पर नज़रे छुपा लेते है
लोग अक्सर जिन्दगी में नज़रो को पड़ने नहीं देते सिर्फ चेहरे दिखते है पर उन्हें हम अक्सर नहीं पेहचान पाते है
तो काश उस मंजर को समज पाते हम जिस को अक्सर देखते है वही चेहरे भी कभी कभी अलग ही रंग दिखलाते है हमको हर मोड़ पर और हर दम 

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