Monday 6 July 2015

कविता ५५. कुदरत की बात

                                                             कुदरत की बात
छोटे से उस पौधे में हमे दुनिया के कई रंग दिखे कभी ख़ुशी कभी गमों के सारे सोच की चाहत हर ओर दिखे 
जब हम उम्मीद रखते है 
तब नयी नयी सी सोच दिखे उस आसमान में जिस के नीचे हम जीते है हर बार ख़ुशी के कई तरह के मोड़ दिखे पर जब हम दुःख से देखते है 
हमे रोज कोई उम्मीद दिखे जो हमे खुशियाँ देती है या गम हर बार हमारी सोच कई मोड़ पर कई बार हमे हर बार दिखे जब हम कोई सोच है 
जिनमे हम सोचते है नयी नयी तरह की उम्मीद दिखे पर हम सोचते है सारे आशाओ के दिप बार बार जले सारी सोच जो हम दिल में रखते है 
उन पर हम कोई ना कोई उम्मीद दिखे हर बार जो हम सोच रहे है सारी दुनिया हमारे नज़र में क्या सिर्फ हमारी सोच ही है 
क्युकी सारी सोच वही है जिसे हम रोज नहीं समजते पर सिर्फ सोच पर ही है हम चलते है कुदरत जो दिखती है वही राह हम चुनते है
पर अपनी मर्जी से नहीं कुदरत की जबरदस्ती से हम चलते है काश की कुदरत की सारी बाते हम समज जाते उन्हें बताते और जब समजते है
कुदरत तो वह चीज़ है जिसे हम हर बार पसंद करते है पर जब वह उलझन देती है कहा उसे हम अपनाते है हर मोड़ हम वही सोचते है
की शायद हम कुदरत को समज पाते है पर हम नहीं समजे उसको कुदरत हमें समजती है और हमें आँधी तूफानों से सब कुछ सिखाती है
अच्छी सोच से जब हम समजे कुदरत हमे उम्मीद है देती रोज नयी दिशाओं के संग कुदरत ही वह चीज़ है जो हमे खुशियाँ देती है 

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