Thursday 9 July 2015

कविता ६२. मुड़ जाना

                                                                   मुड़ जाना
काश पानी की तरह हर बार हम आसानी से मुड जाते काश कोई हमे रोके तो उसे माफ़ कर के हम अपनी अलग राह आसानी से चुन पाते
पर इस तरह से दुनिया चलती नहीं अक्सर लोग रोक तो देते है पर हमे अपनी राह मुड़ने नहीं देते हर बार जो हम अलग जाना चाहते बस जा नहीं पाते
पानी की तरह साफ दिल से भी अगर मुड़ना चाहे तो भी लोग चाहते है की चुनी राह पर ही चलते रहे वह लोग हमे समज नहीं पाते
जो मोड़ हमें हर दम राह दिखाते है उन्हें जानना मुश्किल नहीं पर हम उन्हें दूसरों के कहने पर पीछे छोड़ कर हर बार है आते
जब हम उनके संग चल नहीं पाते बेहतर तो यह होगा के वह लोग हमें छोड़ ही देते पर ऐसा नहीं होता क्युकी कितना भी मूड जाये पर आखिर में लोग उस पानी को है लाते
उस तरह से ही कुछ है की जिन्दगी में लोग हमें ना साथ देते है ना हमे हमारी राह पर चलने भी नहीं देते क्युकी हम तो उनकी जरूरत है जिसे वह छोड़ नहीं पाते
पानी को नये रूप तो दिखाई देते है पर हम उस तरह से बदल तो नहीं सकते और ना भाँप बनके उड़ पाते  है हर बार हम तो कुछ इस तरह से मुड़ते है की लोग है हमे रोक पाते
हम अगर उनकी जरूरत है तो दोस्तों हम यही नहीं समज पाते है की वह हमारी सोच को अपनाते क्यों नही जिन्दगी में हम तकलीफ क्यों है पाते
काश कोई उन्हें समजाये की जिन्दगी में जिनका साथ वह चाहते है उनकी राहों को हर बार हम अपना नहीं सकते हम हर बार सही ओर से चलना चाहते है और वह हमे समज नहीं पाते
हम सही सोच से चलते है काश लोग यह समजे की हम उनकी तरह चलना नहीं चाहते पर जब वह लोग नहीं समजते हमको हम झगड़ना नहीं चाहते पर फिर भी झगड़ लेते है क्युकी वह लोग हमें नहीं समज पाते 

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