Wednesday 29 July 2015

कविता १०१. राह और सोच

                                                                     राह और सोच
जीवन के हर दो राहों पर हर बार हम कुछ ना कुछ तो चुनते है कभी कभी हम उस सोच को जीवन में समजते है पर कभी कभी बिना सोचे समजे ही कुछ चुनते है
पर हर बार वह सही नहीं होता जो होशियार होते है वह उस बात को समजते है जीवन के हर मोड़ पर हम तरह तरह की सोच देखते रहते है
उन राहों पर जिन पर हमें सोच मिले उन्हें हर बार हम नहीं समजते है सोच समज कर राह को चुनना अक्सर लोग कहते है
पर जब उस विधाता ने ही चुनी है राह हमारी तो उस पर हम क्या कर सकते है चाहे जितना भी सोचे पर राह पर तो उसी चलते है
तो कभी कभी हम सोचते है की इस सोच पर हम जो सोचे तो खयालों पर असर भी होते है अगर बस वही राह है हमारे लिए तो हम उतना क्यों सोचा करते है
जहाँ मुश्किल तो मौजूद नहीं वहाँ हम मुश्किलें भी ढूढ़ लेते है तरह तरह की सोच जिसके अंदर हम नयी दुनिया को हासिल कर लेते है
पर अगर वह सोच हमारे लिए हासिल ही नहीं है तो फिर हम क्यों उस सोच को समजने की हर बार कोशिश करते रहते है
हमें जो हासिल है वही सोच के अंदर हम नये नये किनारे ढूढ़ते रहते है जब हम ऐसा करते है तो ही हम नयी सोच को हासिल कर लेते है
चारों ओर जो सोच बसी है उसे हम कई बार समज नहीं सकते है पर फिर भी हम अपनी सोच को अपने पास रख कर उसी राह पर चलते है
जो हम दुनिया में हासिल करते है क्युकी राह तो तय है बस एक हमारी सोच है जिस को जीवन में हम सही कर सकते है 

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