Friday 24 July 2015

कविता ९१. कहना अभी बाकी है

                                                       कहना अभी बाकी है
कुछ लोग कहते रहते है की कहने को कुछ बाकी है कोई समजाये के हम इतना सुन चुके है की उन्हें सुनाने के लिए ही बस हर बार बाकी है
कुछ लोग जो खुद पे आते ही गम में दिखते है समजाये उन्हें कोई के बस उनका अब  खुदके ग़मों में रोना ही हमारी नज़र में बाकी है
जबान इस लिए होती है हम समजे और समजाये उन्होंने जबान सिर्फ इसलिए थी चलायी की हम हर बार चोट खाये पर शायद उस खुदा ने कहा इन्साफ अभी बाकी है
हम उसके बेहतरीन बद्दो में से नहीं पर हम जो कुछ भी है उसकी नज़र में इन्साफ के लिए काफी है तो जब उस खुदा ने कह दिया है तो अब भला क्या सुनना बाकी है
हमने जो सुना था और आपने सुनाया वही आपको समजने के लिए काफी है उसे फिर से एक बार सुन ले तो आप भी समज जायेंगे की अभी कुछ नहीं बाकी है
कुछ लोग तो बस यही कहते रहते है मौकों पे मौक़ों को माँगते रहते है पर हर बार हम उन्हें मौके देते जाते है शायद उनसे हमारा यही कहना अभी बाकी है
हर बार लोग कुछ समजते रहते है पर सोचना अभी बाकी है हर बार हमें लगता है की हम बस सुनते रहते है शायद समजना अभी बाकी है
पर कुछ लोगों को समजना जरुरी नहीं क्युकी उन्हें काफी समज चुके है अब हम और उन्हें समजाने की तो जरूरत ही नहीं है क्युकी उनका समजना काफी है
तो चाहे कितना भी कहे वह लोग हमें की उनका कहना बाकी है हम तो कहते है सच को इजाजत की जरूरत ही नहीं क्युकी सच का मरना अभी बाकी है
और वह होना मुमकिन ही नहीं क्युकी खुदा की मेहरबानी से इस दुनिया में अभी भी सच्चाई की किंमत है और बुराई की थोडीसी ही जीत हमारे नज़र में काफी है 

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