Tuesday 21 July 2015

कविता ८५. आँखों की उम्मीद

                                                            आँखों की उम्मीद
हर बार उम्मीद तो होती है पर जब हमें चोट लगाती है कौन समजाये हमारे आँखों को के उम्मीद तो छुपी हुई होती है
पर फिर भी जब जब मन को दुःख देती है हर बार हम सोचते रहते है की मन को तो बहला लेंगे हम पर हर बार मुश्किल में आँखे तो रोती है
पर रोना तो गुनाह नहीं होता है हर बार जब दुनिया  हमें मन से रुलाती है हर बार हर आँसूसे चोट निकल जाती है क्युकी हर चोट तो कोई ना कोई निशान दे जाती है
हर बार  मुसीबत इतनी आसान नहीं होती है जब जब मन में चोट तो लगती है मन को समजा लेते है पर आँखे तो रोती है
क्युकी आँखे तो शायद आज के खोयी हुई चीजों के लिए रोती है जिन्दगी तो आगे सही तरह से बढ़ जाती है पर जो चीज़ खोयी वह वापस नहीं आती है
शायद उनके लिए रोना सही बात होगी क्युकी खोयी हुई चीज़ भी तो कभी जिन्दगी का हिस्सा होती है पर शायद जिन्दगी में मुसीबत मिलती है
क्युकी हर बार जब आँखोमें कई तरह की उम्मीदे रखी होती है पर कभी कभी तो वह खोयी हुई उम्मीदों पर भी रो देती है उन्हें कैसे समजाये की आगे उम्मीद होती है
जब वह आगे की जिन्दगी के लिए  नही पर पीछे की जिन्दगी के लिए रोती है उम्मीदों में अक्सर बाते छुपी होती है पर नयी सोच हमें जिन्दा कर देती है
आज की उम्मीद ही तो कल की सुबह होती है पर कभी कभी आज की उम्मीद को खो कर भी कल सुबह होती है तभी उन कोटों से नयी उम्मीद मिलती है
पर शायद पुरानी खोयी हुई उम्मीदों के लिए हमारी आँखों की दुनिया रोती है आखिर पुरानी रात भी दुःख देती है क्युकी उसीमे खोयी हुई उम्मीद भी तो दिल के करीब होती है
तो शायद आँखों के करीब होती है उसी लिए तो उन खोयी हुई उम्मीदों के लिए बिना कुछ कहे और समजे आँखे रोती है 

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