Tuesday 14 July 2015

कविता ७१. चेहरे के मुताबिक

                                                                चेहरे के मुताबिक
कभी कभी हम पहचान लेते है लोगों को हजारों में कभी कभी पहचान ही नहीं पाते है उन्हें दो चार लोगों में
चेहरे के मुताबिक तो हम चलते है हर बार पर नहीं समज पाते है उन चेहरों को हजारों में समज ना पाते है
पर कभी कभी उन्हें समज लेते है दो पलों में पर एक बात तो सच है दोस्तों वही समजदारी होगी दुनिया में
की मान ले  हम नहीं समज पाये उन चेहरों को कभी इशारों में हर बार तो कहते है की समजे है उन्हें फ़साने में
पर हर बार नहीं समज पाये इस धड़कन को पर बार बार यही कहते आये है की हम समज पाते है इन्सान को
दिल से हर मोड़ में
पर सच तो यह है की इन्सानों को समजना मुमकिन नहीं होता हर बार हम जब कुछ ना कुछ सोच मन में
हर बार जागती है हर बार मन को कोई ना कोई उम्मीद दिखती है सारी सोच जो मन को उम्मीद दे जाती है उस में
हर बार सोच मन को दुःख दे देती है जब जब मन में कोई सोच जो मन के अंदर विश्वास जगा देती  हैं हर बार
चेहरेके अंदर की वह सोच नयी मिसाल बनती है जब जब हम आगे बढ़ते है कुछ और ही विश्वास मन में जगाती है
मन में सारे ख़याल जिन्दा कर जाती है वह सारे चेहरे जिनमे जिन्दगी जिन्दा हो जाती है हर बार बस वही सोच मन में खुशियाँ मन में दे जाती है
पर हर चेहरे के अंदर नयी सोच आती है हर सोच जिसके अंदर अलग अलग तरीके से सुबह आती है हम नहीं पेहचान पाते है
चेहरे के अंदर की सोच को पर वही वही नये तरह के ख़याल मन में दे जाती है हम सोचते है बस वही बात जो मन को छू जाती है
चेहरे पर जो भी दिखता है हर बार वही सोच रही समज मन में आती है चेहरे के अंदर नया नया दिखावा मन में  लाती है
चेहरे के अंदर जो सोच है वही हमारे  मनको छू जाती है पर कभी हम जो सोचते है वही सोच मन को बेहतर बनती है 

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