Monday 13 July 2015

कविता ६९. फूल और काटे

                                                           फूल और काटे
जब फूलों ने समजाया मन काटो से कटता है हमें अपना समजो मन से मन पानी के बूंदों से शीतल हो जाता है
पर फूलों को अपना समज पाना आसान नहीं होता क्युकी वह फूल जो दिखते है जिन में खुशबू होती है
हर बार उन फूलों में नयी दुनिया ही दिखती है पर कभी कभी फूलों में भी जहर मिल जाता उस जहर से तो हमे कभी कभी काटो का चुभना ही रास आता है
जब जब हम आगे बढ़ते है चारों ओर काटे चुभते है उन काटो का चुभना कुछ नहीं लगता है पर जब फूलों में ही जहर मिलता है
तब मन के उस अंधियारे में कोई उम्मीद का साया नहीं दिखता है तो सिर्फ फूल इस लिए हम चुनले यह ना मन को काफी लगता है
कभी कभी तो फूलों से दूर ही रहना सही दिखता है जब जब हम आगे बढ़ जाये सिर्फ उम्मीदों के सहारे आगे बढ़ जाते है
कुछ फूलो में खुशबू है तो कुछ में जहर भरा है सारे फूलों में वही खुशबू जगह है वह खुशबू जो मन को छू लेती है पर उसमे जहर भरा होता है
काटो में भी  कभी कभी खुशबू मन को छू लेती है हर बार जब हम आगे बढ़ जाते है काटो के आगे भी कई तरह ही मंजिले होती है
फूलों में खुशबू है कभी अच्छी और कभी बुरी चीज़ जिन्दगी में हर बार हासिल होती है हम हर बार जब कुछ समज लेते है
पर फिर सारी सोची समजी चीज़े ही बदल जाती है जिन्दगी को नयी सोच फिर रास आती है तो काटो में खतरा है फूलों में नहीं यह भी नहीं कह पाते है
जब जब हम आगे बढ़ जाते है जिन्दगी में नयी नयी दिशाओं में जाते है तब हम समजते है की काटो में भी फूल होते है और कभी कभी फूलों में काटे मिल जाते है  

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