Friday 10 July 2015

कविता ६४. सागर में छुपे ख्वाब

                                                                  सागर में छुपे ख्वाब
सागर के किनारों पर जब ख्वाब कोई बुनता है उन ख्वाबों को समजना हमें अक्सर आता है वह सागर जो सिपो में मोती छिपाता है
अक्सर वही सागर अपने आँचल में हमारे ख्वाब रख जाता है उन ख्वाबों की माला में जब हम ख्वाब चुनते है हर बार बस वही सोच है
जिसमे हम कई तरह के ख्वाब हम रखते है सारे ख्वाब जो हम रखते है उनमे भी दुनिया दिखती है और हर बार जिस सोच में हम जीते है
वही सोच उस सागर की लहरों पर जुमती है उन ख्वाबों को जिनमे अक्सर यह दुनिया दिखती है हम हर बार यही सोच हमेशा रखते है
हम कभी जब यू ही सोचा करते है तब देखते है परिदों को सागर के ऊपर उड़ते हुए तब हम सोचा करते है शायद उनको उस सागर में हमारे ख्वाब भी दिखते है
उन लहरोंने जब हमें छू लिया था क्या उस पल उन्होंने वह ख्वाब भी चुने होंगे हर मोड़ पर जब पानी छू लेता है हम को क्या उस पल हमारे ख्वाब भी पानी ने सुने है
पर जब याद करते है हम उन लहरों को उम्मीद सी जग जाती है हर बार धरती और धरा तो अपना साथ निभाती है पर सागर बहकर दूर निकालकर ख्वाब साथ ले जाता है
वह सागर तो चुपके से हमारे ख्वाब भी साथ ले जाता है शायद हम भूल भी जाये पर वह सागर उन्हें नहीं भूल पाता है
शायद बस इसीलिए ख्वाबों का कारवा जिन्दगी में अक्सर आता है उन ख्वाबों में जिनमे हम अक्सर जीते है वही ख्वाब जब भूल भी जाते है
और हार भी मान लेते है पर फिर भी ख्वाब पुरे हो जाते है क्युकी ख्वाब जिन्दा रहते है सागर में कुछ ख्वाब हमेशा मेहफ़ूज़ रहते है
इसी लिए ख्वाब में प्यारी चीज़ मन को छू जाती है शायद वह सागर हमें ख़ुशी देता है सागर ही हमें ख्वाब वापस दे देते है 

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