Saturday 13 June 2015

कविता ९ राह

                                                      राह
काश जिन्दगी में कोई आसान सा रास्ता होता जिस पे कोई तूफ़ान न बसता होता
काश उस रस्ते में हम खेल सके वह खेल कयी काश फुरसत तुम्हें मिल जाती थोड़ी
काश उस फुरसत में तूने हमे सुना होता ना देखते उन दीवारों की ओर ना दिल में कोयी
डर होता अगर तूने कभी हमे सुना होता तो शायद दिवारों को ना बताया होता
पर फिर सोचते है की अब दिवार भी हमें समजने लगी है उनसे बात करने में भी
अब आने लगा है यकी पर काश जब हसते थे तब तुम्हे फुरसत मिली होती
काश उस वक्त तू हमारी और हस के देख लेती तो हमने तेरी मुसीबते भी ले ली होती
पर अब ना है हम हस के सहे गे उनको हर और से अब बगावत होगी हम मागेंगे खुशियाँ तुज से
हासिल करेंगे उन्हें पर्वत चीर के क्युकी अब ना इंतज़ार करने की हमे फुरसत होगी
कभी तेरे  पास इस ओर ना देखने की फुरसत थी अब हमारी और ना रुकने की फुरसत होगी
अब तो हम उस तरह से कुछ दौड़ेंगे की सोचगे भी नहीं क्या हमे जीत हासिल होगी
क्युकी अब तो हमे एक राह मिल चुकी है हम दौड़ेंगे बिना सोचे की उस पर मंज़िल होगी या ना होगी
चाहे कुछ भी हो अब कदम रुक ना सकेंगे कभी क्युकी रुकने से उन्हें कुछ हासिल ही नहीं
अब तो बस दौड़ेंगे बिना सोचे हर कही के क्या तू साथ देगी या नहीं क्युकी अब तेरे साथ की
हमे कोई उम्मीद ही नहीं क्युकी मंजिल तो नहीं पर कम से कम राह तो हासिल हो गयी
तो उसको खोना मुमकिन नहीं है तो हमारी साथी हमारी राह बनी है हमारी मंजिल नहीं 

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