Wednesday 24 June 2015

कविता ३० . परिदों की उड़ान

                                                             परिदों की उड़ान
आकाश में उड़ते हुए परिदों से हमने पूछा क्या उन्हें पता है हम किस ओर जा रहे है हर बार जो उड़ते है 
 सारे परिदों की उड़ान हर बार उपर ले जाती है वह परिदे आकाश को ही हर बार छूते है उन्हें देखा है 
हर बार हमने उड़ते हुए चारों ओर उड़ते हुए हमने परिदों को उड़ते हुए और देखा है आसमान में जाते है 
उन्हें हर ओर घूमते हुए बिना किस रोक के हर दिशा में रोज जाते और उसी तरह लौटते हुए 
और वापस एक सही राह हर बार वह है पाते काश आकाश के  परिदे  वह सारी दिशाये हमे भी दिखाते 
घूमते घूमते हुए पर वह हर बार अपना रास्ता कितनी अच्छे से  है जानते पर हमने देखा है इन्सानों को 
हमेशा रास्तों को ढुढते हुए काश वह बता पाते रास्तों को परिदों की तरह हमारे लिए पर अफ़सोस यही है 
हमारे दिल के लिए परिंदे तो ढूढ़ लेते है  पर हम नहीं ढूढ़ पाते सही राह अपने घर  के लिए हमे तो बस है 
तलाश उन चीज़ो की जो खुशियाँ दे हमे कुछ पल के लिए भुला देते है हम हमेशा की ख़ुशी कुछ पल की ख़ुशी के लिए 
काश के वह आकाश ही हमे समजाये कौनसी राह सही है हमारे लिए हम वह मुसाफिर है जो ढूढ़ते है 
सही राह सिर्फ एक पल के तस्सली के लिए ना महल माँगते है ना तलाश है किसी ताज की हमारे लिए 
बस तसल्ली से बैठना चाहते है किसी डाली पर मन के सुगुन के लिए पर कोई ना समज पाये हमे 
हर कोई बस गिन रहा है इनाम हमारे लिए जब हसी सबसे बेहतर है तो भी सोचते है हर बार यही चीज़ है हमारे लिए 
तोहफा ढूढ़ते है हसी का  इनाम पाते  है सिर्फ दिखावे के लिए काश लोग समज पाते सबसे बड़ा इनाम दोस्त होता है जमाने के लिए 
बाकि कुछ भी मिल जाता है पर सही साथी नहीं मिलता जो राह दिखा दे क्युकी हम परिंदे नहीं जो राह जाने बिना मदत लिए 

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