Monday 22 June 2015

कविता २७. रोकते है हम

                                                           रोकते है हम        
आँखो में जो सपने है उन्हें रोकेंगे न हम किस्मत से जो मिला है उसे टोकेंगे न हम 
बस यही कह दे तो काफी है किस्मत के लिए क्युकी जो भी मिले उस पे बहोत सोचते है हम 
हर बार यही कहते है कही यह गलत तो नहीं बस यही सोच कर सपनों को रोकते है हम 
कई बार उन आँखों में कई ख्वाब हमने देखे है पर हर बार जाने क्यों उन ख्वाबों को रोकते है हम 
ख्वाब एक नदिया है उसे बहाने तो देते है हम पर उसे समुंदर से मिलने पहले ही क्यों रोकते है हम 
इस हर ख्वाब की चाबी में किस्मत है बसी फिर भी उन्हें पाने से अपने आप को क्यों रोकते है हम 
अगर टूट गये तो भी मन को तस्सली तो होगी कोशिश ही जरुरी है पर उसे ही जाने क्यों रोकते है हम 
हर बार इस भरम में की वह टूट न जाये उस खूबसूरत कश्मकश को जाने क्यों रोकते है हम 
जब हवाओ ने  कहा हम उड़ के यू ही जाना है उस हवा को मंजूर करने की जगह टोकते है हम 
जब उड़ सके है उन बादलों में तो उन बादलों के तूफानों से डर के खुदको रोकते है हम 
हर बार जो उड़ चले वही हवा लगे हमे प्यारी फिर भी उस हवा को घर में आने से रोकते है हम 
कोई हमे समजाये यह कसूर क्यों करते है हम पर अनजाने में ही सही पर कभी कभी उन्हें चुपके से बुलाते है हम 
हर मोड़ पर दिखती है खुशियाँ सिर्फ उन्हें सोच कर तो फिर उन्ही मासूम आँखों से बच्चे की तरह देखते है हम 
न रोक पायेगे उस सुबह को जो रंग देती है हमारे जहाँको क्युकी जो खुद उस उपरवाले ने है बनाई उसे कैसे रोकेंगे हम 
जो ख्वाब उसने सजाये वही धीरे धीरे देखते है हम न रोक सके उसे क्यों की उसे टोकना मुमकिन है पर उसे कैसे रोक सकते है हम
उसने जो बनायीं उसे मंजूर करगे तो ही उन हवाओ में उड़ सकते है तो आजकल उसकी बात एक दो दिनों में मानते है हम

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