Thursday 18 June 2015

कविता २० . मासूमीयत

                                                         मासूमीयत
क्या कहे की कभी कभी किसीकी हरकत हमे हसती है बच्चे का बचपना याद दिलाती  है 
सच कहे तो बड़ा होना चाहते है लोग पर हमे बच्चे सी मासूमीयत बहोत भाती है हर बार यही सोचते है 
क्यों लोग इस तरह से मासूमीयत का मजाक उड़ाते है आखिर उस खुदको प्यारी  है वह तो इन्सान को भाती है 
हर बार हम जो सोचते है वह सोच हमे नहीं भाती है जो मासूम सोच मन को आगे ले जाती है 
मासूम सोच ही सही है पर शायद जिस तरह से हम उसे चाहते है लोग अक्सर नहीं समजते है 
वह मासूम दिल की बाते जमाना नहीं समजता पर वह खुदा है उसे हर बार नहीं समजता है 
मासूम दिल की चाहत हमे हसाये रुलाये पर जमाना शायद उसे ना समाज पाये हर बार और एक सोच है 
हम उस मासूमीयत को नहीं समज पाये बच्चे भी बचपने से भागते और हर बार बड़े होना चाहते है 
मासूमीयत जो हमारे मन को भाये खुदा उसे हर बार बनाये क्युकी उसमे वह ताकद अंदर है 
जो हर बार हमे भाये पर हर बार जब हम देखने है कोई नज़रोंमे वह मासूमीयत पायी है 
उसी ओर हमारी नज़र हमने घुमायी है पर जाने क्यों कभी कभी लगता है कई बार वह मासूमीयत जो बच्चे ने खोयी है 
वही मासूम नज़र बड़ो में पायी है हर बार हम सोचते कितनी प्यारी बात हमने दुनिया में पायी है 
जब निगाहों में हम वह ख़ुशी पाते है हर बार हम यही सोचते है हर बार यही सोचती है 
पर वह मासूमीयत कही खोना जाये यही सोचकर हम डरते है क्युकी दुनिया की राह में सिर्फ मासूमीयत खोना सीखते है 
मासूमीयत ही वही ताकद है जो हमे भाती है पर ज़माने को ना लुभाती है इस लिए वह अक्सर खो जाती है 
पर हमे बस यही दुनिया की यही आदत नहीं भाती है नहीं चाहते तो अनदेखा करते  पर वह उसी से जलती है 
और अकसर उसी को दिन रात सताते है पर खुदा की यह रेहमत है की  मासूमीयत हर बार जीत जाती है 

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