Saturday 13 June 2015

कविता १० आजकल

                                                            आजकल
हर बार जो हम कुछ कहते है आप चुपचाप से रहते है पहले लगता था आप साथ हो पर आजकल
हम आपने सायों पे भी शक करते है
मानते है की शक सही बात नहीं पर अब किसी पे यकी कर ले यह ज़माने के  हालत  नहीं तो हम आजकल
तब तक  ना यकी करते है
जब तब कोई आ के ना लब्जों में कहे पर हर कोई अपनी बात कहे यह भी मुमकिन नहीं तो आजकल
हम सिर्फ सोचते है
की उस खुद पे ही रखेंगे यकी क्युकी उसने भी कोई राह फुरसत में बनायीं होगी जिस पर हमे आजकल
भी चलाना होगा मुमकिन
है हमे उस राह पर अभी भी यकी कोई कुछ भी कहे पर हम उस राह से दूर न रह पायेगे कभी आजकल
होते है  शक कयी  हम सोचते है
हर मोड़ पर दिखती है हर बार कोई बात नयी काश के हम उस बात को समजा पते पर आजकल
हमने देखा है सभी हर बात को जानने लगे है
हमारे अल्फाज जिस दिल को छू ना सके उस पे वक्त गवाना हमे मंजूर नहीं पर हर बार आजकल
देखा है हमने लोग बदलते है
पर जो हर मोड़ पर बदल जाये क्या उन पे वक्त गवाना  मुनासिब होगा पर हमने देखा है आजकल
हम सोचते ही नहीं इस बात पर चलते है
हर दम बिना सोचे क्युकि पहले तो इंसान पर होता था यकी पर हमने देखा है हर बार आजकल
हर बात पर सिर्फ खुद का  भरोसा  करने लगे है


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