Friday 12 June 2015

कविता ७. किनारे

                                                        किनारे
हम समजते है वही सही साथी है हमारे जो हमारे दुःख को समजे और अपनी मज़बूरी में हमे पुकारे
जिन्दगी है कितनी छोटी उसे एक दुसरे को रुलाने में क्यों गुजरे जब के हसके निकल जाएगी ये
अगर हम एक दुसरे को दे सहारे पर हर मोड़ पर गिनते है हम लोग बस यही कौन जीते कौन हारे
हमे सब का साथ देना है पर हम सिर्फ लोग  चुनते है और फिर सोचने है की हम जिन्दगी क्यों हारे
जिसने हमे बनाया शायद उसने भी ना सोचा होगा के इस तरह से कभी हम भी करगे इंसानियत
पर वह तो शायद सब जानता होगा उसी लिए तो उसने हमारे लिए कही ना कही थोड़े है सहारे
हम ठिक से ढूढेंगे तो हमे मिल जाएगे वह किनारे जिनकी हमे तलाश होगी वही बन जायेगे सहारे
अगर हम अपना परया छोड़ के देखेगे इस जिन्दगी को देख पाते तो कभी ना रहते गर्दिश में वह किनारे
हर और रोशनी होती हर और होते बस उज्जाले हम अगर सही राह पर अभी भी चले तो पास है किनारे
जो खो गया है उस पर सोचनेवाले काश की समाज पाते जिन्दगी में आगे ही हमे  ढूढ़ने है किनारे
पिछे तो बस वह बात है जिस में हम कभी मंज़िल ना पा सके अब  आगे ही हमारी उम्मीद हमे पुकारे
आगे जब चलेंगे मुश्किल भी साथ होगी पर मुश्किलों से ही तो हमे हासिल होगे वह सारे किनारे
हमारा दिल हर बार यही पुकारे एक दुसरे का साथ देने से ही तो हासिल है हमें सारे खूबसूरत किनारे

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