Sunday 28 June 2015

कविता ४०. डरना सीख लिया हमने

                                                         डरना सीख लिया हमने
चलते चलते कभी कभी हमने पिछे मूड के देखा भी है हमने जो नहीं है उन्हें ढुंढा भी है हमें उनके ना होने का अजरज तो नहीं पर कभी कभी अफ़सोस भी किया है हमने
जो नहीं लिखी थी वह किताब भी कभी कभी पढ़ लेता है दिल तो क्यों उसे रोके यह सोच कर दिल को ढूढ़ने दिया है हमने
जिसके हर पन्ने पर कोई नये अल्फाज हो लिखे इस तरह की कहानी के लिए कई बार मूड के देखा है हमने
माना की वह मंजर जिंदगी नहीं दोहराती है हमारे लिए फिर भी बड़ी उम्मीद से देखा है हमने
उस देखने में भी एक अलग मजा है क्यों की बार बार उम्मीद रखने का मजा उसमे लिया है हमने हर बार नया कोई और सपना देखा है हमने
उसे सच  होने की सोच हर बार आगे ले जाती है हमे पर उसी पल जाने क्यों डर को भी महसूस किया है हमने
अगर हम किसी सपने को ढूढ़ते है तो कम से कम उन सपनो से डरा नहीं करते थे आज तक काटो पे चलते थे उनके लिए हम पर आज जिस सपने को ढूढ़ते है उसी से डरना सीख लिया हमने
हर बार हम हर कदम पे जो मुड़ के देखते है हर बार नये सपने पाते है उन सपनो से आज तक नहीं डरे थे पर आज कल जाने क्यों डरना सीख लिया हमने
आज हसे या रोये यही नहीं समज पा रहे है हम क्यों की ख्वाबों से अपने ही बता नहीं कैसे पर डरना सीख लिया हमने
बार बार हम जो मूड के देख रहे है काश उस ख्वाब को माँग भी लेते हम पर उसी ख्वाब से डरना सीख लिया हमने
काश हम सही चीज़ सीखते है पर अफसोस है दोस्तों जिन्दगी रोने से भी पहले शायद गलती से हर अनजान मुसाफिर से डरना सीख लिया हमने



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